जगमग मुख औंधे पड़े हैं सब स्वप्न हमारे
माह-माह वर्ष-वर्ष तक प्रतिक्षा है पुरजोर उन्हें हमारी
कूपमंडूकों का अंतिम निष्कर्ष भी उनकी जेब में पसीज रहा है
सब हँस रहे हैं आपस में
हिंदी समय में रविकांत की रचनाएँ